Friday, October 27, 2017

विदा ! अप्पा जी

गिरिजा जी की गाई हुई कजरी " बरसन लागी बदरिया, रूम झूम के " या "घिर आयी है कारी बदरिया " सुनता हूँ तो मन स्वतः इस शहर की पक्की सड़कों से सीधे, सावन में घिरे हुए काले काले बादलों की ओर चला जाता है, जहाँ में अपने गाँव के खेतों में पगडण्डी पे चला जा रहा हूँ और आसपास नई नई पत्तियों से लैस पेड़ पौधे लहलहा रहे हैं, मंद मंद पवन चल रही है और बारिश की फुहार चेहरे पर पढ़कर मुझे तरोताजा कर रही हैं। ऐसा असर था उनकी आवाज़ का मुझ पर।
    जब गिरिजा जी को मैंने पहली बार सुना तो उनकी आवाज़ कुछ अटपटी सी लगी, और कुछ खास असर नहीं हुआ। पर जैसे जैसे उनको सुनता गया उतना ही उनके रस में सराबोर होता गया। जब वो पान का बीड़ा अपने मुंह में दबाकर सुर साधती थीं तो बस मंत्रमुग्ध सा उनके संगीत के पाश में बंध जाता था। हालाँकि वो शास्त्रीय संगीत की हर विधा में निपुण थीं पर उनकी ठुमरी, चैती, होरी ने उन्हें लोक ह्रदय में "ठुमरी की रानी" का स्थान दिया। 
     एक बात जो भारतीय संगीत और खासकर शास्त्रीय संगीत में खास है वो है संगीत और अध्यात्म का गुंथा होना। संगीत और अध्यात्म भारतीय संगीत में हांथों हाँथ चलते हैं। स्वर से ईश्वर तक जाना, साकार से निराकार को साधना, कलाकार का लक्ष्य होता है। और इसी यात्रा में संगीत उसकी  तपस्या बन जाता है। और उसी तप के पुण्य प्रताप की बौछार श्रोताओं पर होती है जब वो इन कलाकारों को सुनता है। वो कहते हैं न जिसके पास जितना बड़ा घड़ा है उतना ही पानी उसमें आता है, बस वही हाल हम श्रोताओं का है जितनी समझ उतना आनंद। जहाँ तक मेरी बात है तो मुझे अभी संगीत की उतनी समझ नहीं है जितनी मेरी इच्छा है। पर जिस प्रकार मोर भूगोल को समझे बिना भी बरसात आनंद लेता है, उसी प्रकार में भी संगीत को सुनता हूँ और अपने को भिगो लेता हूँ। 
     गिरिजा देवीजी की आवाज़ में सरलता और सच्चाई दीख पड़ती है जो एक शायद आज के समय में दुर्लभ है। शायद इसलिए जब वो गाती हैं  "रंग डारूंगी, नन्द के लालन पे" तो राधा रानी और कृष्ण ब्रज में आपकी आँखों के सामने होरी खेलते प्रतीत होते हैं। 8 दशक की अथक तपस्या का ही ये फल था की सरस्वती उनकी जिह्वा पर विराजमान थीं और वो आखिर तक उसी अंदाज़ में गाती रही जैसे अभी भी 30 - 35 बरस की हो। 
    जैसे बंद आँखों पर भी सूरज की लालिमा पड़ती है और अँधा भी सूर्य के ओज़ को महसूस करता है बस वैसे ही मेरा विवरण है। इसमें कोई शंका नहीं है की गिरिजा देवी का व्यक्तित्व का वर्णन मेरी क्षमता से परे है और कोई संगीत में पांडित्य रखने वाला या उनका निकटतम व्यक्ति ही शायद उनके संगीत के हर आयाम को न्यायपूर्वक बयां कर सके। पर फिर भी मुझ अंधे का यह हक़ तो है उस सूर्य को अपना अर्ध्य देकर अपना आभार प्रकट कर सकूँ। 
    विदा संगीत साम्राज्ञी, विदुषी गिरिजा देवी जी।

Tuesday, July 29, 2014

हमारे किसान

          पिछले कुछ समय से मैं एक जाने माने पत्रकार  पी. साईनाथ जी के कुछ वीडियो देख रहा हूँ, विदर्भ और आँध्रप्रदेश में हो रही किसानों की आत्महत्या के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर लाने का बहुत बड़ा श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने भारतीय किसानों की स्थिति पर जो कार्य किया है, वो निसंदेह सराहनीय है। विदर्भ की जो तस्वीर वो जनता के सामने पेश करते हैं वो अत्यंत दुखद है पर दुर्भाग्यवश उतनी ही सच्ची है। जब साईनाथ  उन किसानों की वर्तमान स्थिति का वर्णन करते है, तो उसमें मुझे मेरे क्षेत्र के किसानों का भविष्य नजर आता है। हालाँकि मैं कृषि के क्षेत्र का कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, पर एक किसान परिवार से आने के कारण मुझे अपने क्षेत्र के किसानों की समस्याओं का कुछ हद तक ज्ञान है। 
           यदि हमें आज की स्थिति का आंकलन करना है तो उसके लिए अतीत में जाना जरुरी है, क्यूंकि तभी हम वर्तमान की सही समीक्षा कर सकेंगे। अतीत के लिए यहाँ मुझे अपने दादा-दादी की सुनाई हुई घटनाओं पर निर्भर करना होगा । तकरीबन पचास साल पहले, जब किसानी में न ही सिंचाई के लिए पम्प का उपयोग होता था और न ही जुताई के लिए ट्रेक्टर का। उस समय कृषि सिर्फ मानसून पर ही निर्भर करती थी, और अधिकतर किसान साल में एक फसल ही निकाल पाता था। बरसात के दिनों में गांव के गांव नदी में बाढ़ के कारण या ख़राब सड़क के कारण मुख्य धरा से कट जाते थे, साल के चार महीने अपने गांव तक ही सीमित रहना उनकी मजबूरी बन जाती थी। यहाँ तक की गांव से खेतों की ओर जाने वाली पगडंडियों पर चलना दूभर हो जाता था। पर इसे किसान की मजबूरी कहें या उनकी सूझ बूझ, वे बरसात के मौसम में खेत को परती (जमीन पर फसल न बोना ) छोड़ दिया करते थे, और बरसात आने के पहले ही वे अपने खेतों की मेढ को बाँध दिया करते थे। इस कारण पूरे चार महीने के लिए खेत पानी में डूबे रहते थे, फलस्वरूप जमीन का जल स्तर अच्छा हो जाता था और खेतों में जो घास-फूस हो जाया करती थी वो इतने समय पानी में डूबे रहने के कारण नष्ट हो जाती थी। और हर एक गाँव में जो कई छोटे बड़े तालाब होते थे वे भी लबालब भर जाते थे। यूरिया फॉस्फेट तो उस समय किसान को मयस्सर नहीं थे इसलिए खाद के लिए सिर्फ गाय-भैंस का गोबर का प्रयोग हुआ करता था। अब चूंकि खाद की जरूरत है तो हर किसान के घर में पशु हुआ करते थे। गाय-भैंस  दूध-गोबर के लिए काम आती थी और बैल हल बखर-गोबर के लिये। ट्रैक्टर हार्वेस्टर नहीं थे तो जुताई से लेकर कटाई तक सारा काम हाथों से होता था, तो मजदूर की जरूरत ज्यादा होती थी। जो फसल बोई जाती थी उसमें गेहूं, चना, चावल, बाजरा, मटर, दालें मुख्य थीं। इन फसलों से फायदा ये होता था की किसान अपने पेट के लिए अनाज स्वयं पैदा कर लेता था, और जरूरत से ज्यादा अनाज बाजार में बेच देता था। 
          प्राकृतिक और तकनीकी समस्यों के अलावा भी किसान बंधुआ मजदूरी, साहूकारी और जमीदारी जैसी सामाजिक और आर्थिक समस्यायों से ग्रस्त था। इस समस्यायों का मुख्य शिकार अधिकतर छोटे किसान हुआ करते थे, अपनी जमीन पर वे मजदूर बन कर रह जाते थे । बैंक या सरकारी ऋण उपलब्ध न होने के कारण किसान धन के लिए साहूकारों पर निर्भर था. और यदि किसी साल बरसात कम हुई या फसल किसी कारण ख़राब हो गयी तो किसान कर्ज में इस कदर डूबता था की आखिरकार जमीन बेंचकर ही कर्जमुक्त हो पता था।
        आज स्थिति बदली है, कुछ मामलों में बदलाव अच्छे के लिए हुआ है, और कुछ मामलों में बुरे के लिए। अब अधिकतर गांव बेहतर सड़कों से साल के बारह महीने मुख्य धारा से जुड़े हैं । अब हल-बैल बमुश्किल ही देखने को मिलते हैं । जो काम एक हल कई दिनों में कर पता था , आज एक ट्रैक्टर उसी काम को चंद घंटों में पूरा कर देता है। आज हर किसान साल में कम से कम तीन फसलें लेता है । सिचाई के लिए आज नहर और बोरबेल उपलब्ध है। खाद के लिए अब गोबर वाली खाद पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। आज हमारे क्षेत्र का किसान सोयाबीन और गन्ने जैसी फसलें, जो पानी का अत्यधिक उपयोग करती हैं, की उपज कर रहा है।
           यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा है तो फिर मैंने जो ऊपर कहा की मुझे आज के बिदर्भ में कल का नर्मदांचल दिखता है, वो तो पूर्णता गलत है। पर क्या सब कुछ सही चल रहा है ? उत्तर है नहीं । मैं उन बदलावों की बात कर रहा हूँ जो मैंने खुद पिछले एक दशक में देखे है। आज गांवों में आपको बमुश्किल ही एकाध तालाब मिलेगा, अधिकतर तालाब अब खेत बन गए हैं । अब कोई किसान बरसात के दिनों में अपना खेत परती नहीं छोड़ता, पर भू जल का उपयोग छक के करता है । अब किसान अनाज वाली फसलों से नकदी फसलों की तरफ कूच कर रहा है। जहाँ पहले गेंहू और चावल के खेत हुआ करते है वहां आज गन्ने लहलहाते हैं। सिर्फ नरसिंहपुर जिले में कम से कम सात से आठ बड़ी शुगर फैक्ट्रियां हैं । किसान बड़ी मात्रा में अनाज से गन्ने की ओर जा रहा है। एकमुश्त रकम मिलना और इससे भी ज्यादा समय पर भुगतान होना सबसे बड़ा कारण है । गन्ने की फसल में पानी की बहुत ज्यादा जरूरत होती है, और इस जरूरत के लिए दोहन होता है भू जल का, कुछ वर्ष पहले जो जल स्तर 25 से 50 फ़ीट पर था, वो आज 150 से 180 फ़ीट पर जा पहुंचा है। पर सबसे बड़ी दिक्कत यह है की इस कारण किसानों ने गेंहू, चावल और दालों की खेती कम कर दी है, नौबत यहाँ तक आ पहुंची है कि हम दालों की जरूरत का बड़ा हिस्सा आयत से पूरा करते हैं।
          पर सारा दोष किसानों का नहीं है, हमारी नीतियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। हम आज भी किसानों को साहूकारों के चंगुल से मुक्त नहीं करा पाये। बैंक की बाबूगिरी में किसान इस कदर फंसता है की बेचारा आखिरकार साहूकार के दर पे आने को बाध्य हो जाता है। मैं यहाँ बड़े एवं संपन्न किसानों की बात नहीं कर रहा हूँ, वे सरकार की सारी योजनाओं का पूरा उपयोग कर पाते हैं। पर छोटे किसान जो न ही ज्यादा जागरूक होते हैं और न ही पढ़े लिखे, बेचारे बैंक के फार्म भरने में भी असमर्थ होते है। जैसे तैसे करके यदि किसान अपनी तैयार फसल को सरकारी मंडी में बेचने जाता है, तो वहां भी समस्याएं उसके स्वागत में तैयार खड़ी मिलती हैं। सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण किसानों को लाभ तो हुआ है पर मंडी तक ले जाने के बाद भी किसान को अपनी फसल तुलवाने के लिए कई दिन का इन्तजार करना पड़ता है और इस पूरे समय उसकी फसल पर कई खतरे मंडराते रहते हैं। दिन रात बेचारा अपनी फसल की चोरों से सुरक्षा करता है, और जब बरसात के कारण उसकी फसल रखी रखी भीग जाती हैं तो उसे खरीदने से मना कर दिया जाता है। इन ढांचागत परेशानियों के कारण किसान अपनी फसल बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर बेंचने को मजबूर है। पर जैसे तैसे अगर उसकी फसल सरकारी मंडी में बिक भी गयी तो उसका भुगतान होने मैं कई हफ्ते लग जाते हैं।
            यदि हम विदर्भ की समस्या को थोड़ा नजदीक से देखें तो, उसकी शुरुआत की कहानी कुछ ऐसी ही है। वहां भी किसान अनाज की जगह गन्ने और कपास जैसी नकदी फसलों की ओर बढ़े, जिनकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार तय करता है। वहां भी भू जल पर आश्रित होने के बावजूद, अधिक पानी का उपयोग होने वाली फसलों को बढ़ावा दिया गया। अधिकतर छोटा किसान वहां भी ॠण बैंक से नहीं साहूकारों से लेने को मजबूर था। यही कहानी मुझे आज हमारे किसानों की दिखती है। क्या हम भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे है ?
           

Friday, July 11, 2014

उलझन

कभी कभी ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ है जो मैं कहना चाहता हूँ, पर घुमड़ते हुए विचारों को सावन के बारिश में तब्दील करने की कोशिश करते करते मैं खुद ही अपने आप को खो देता हूँ । मुझे नहीं पता कि ऐसा क्या है जो मैं कहना चाहता हूँ, पर हाँ कुछ तो है जो मैं कहना चाहता हूँ । मेरे विचार उन बालों की तरह हैं, जो  कभी रेशमी मुलायम से लगते हैं, पर जब नजदीक से देखता हूँ तो उतना ही उलझा हुआ पाता हूँ । क्या कोई भाषा इंसान के हर विचार को व्यक्त कर सकती है ? या भाषाई अभिव्यक्ति की भी एक सीमा होती है ? या मैं हूँ जो भाषा के सामर्थ को काम आंक रहा हूँ ?… अपने ही विचारों में विरोधाभास पाता हूँ ।रूप नारायण जी की एक कविता है जिसकी गहराई का अंदाज़ा शायद अब मुझे होने लगा है । 
 " नीर से सीख लो - तरल होना,
   पंक से सीख लो - कमल होना,
   हाय! कितना कठिन होता है ?
   आदमी के लिए सरल होना । "
पर क्या सरलता तक पहुँचने के लिए उलझनों के बवंडर से गुजरना होता है? मुझे नहीं पता, पर रुकना भी मुझे मंजूर नहीं। कई सवाल हैं जिनके जवाब किताबों में नहीं मिलते, या जिनका जवाब मानव निरंतर खोजता रहता है, कई सवाल ऐसे भी हैं, जिनके कई जवाब हैं और हर जवाब अपने आप को उतनी ही ठोस दावेदारी के साथ पेश करता है। मेरे ज़हन में भी ऐसे कई सवाल हैं जिनका मुझे जवाब चाहिए, शायद जवाब पाकर मेरी उलझन खत्म हो। मुझे उस पल का इंतज़ार है, जब मेरे मन के सामने का कोहरा छटेगा और मैं अपने आपको आईने में साफ साफ देख सकूंगा।


Sunday, April 20, 2014

नर्बदा मैया हो !!!

आज बस यूँ ही लोकगीत सुनने का मन किया, सुनते सुनते  राकेश तिवारी का एक लोकगीत नजर आया। "नर्बदा मैया हो... ", अब जो नर्मदांचल के निवासी हैं उन्होंने तो जरूर ही इस गीत को सुना होगा। जैसे जैसे इसे सुनता गया मन लौट गया उन दिनों की ओर जब हम नर्मदा स्नान के लिए जाते थे। अब चाहे मकर संक्रांति का मौका हो या फिर नर्मदा जयंती, बस मौका मिलता और प्लान तैयार। भंडारे की तैयारी का काम तो घर के बड़े लोग सँभालते थे, हम तो बस शुरू हो जाते अपना मास्टर प्लान बनाने में। सबको खबर कर दी जाती और पूरी चिल्लर पार्टी अगले दिन घर पे इकहट्टा हो जाती। "इस बार तो एक घंटे  से कम  नहीं नहायेंगे, चाहे कोई कितना भी रोके", मैं बोलता , "और हाँ इस बार तो तैरना सीखना ही है", बाजू से आवाज आती। यहाँ बाहर से खबर आती की टैक्टर ट्राली तैयार हो रहे हैं, अब आपको लगता होगा की ये  टैक्टर ट्राली बीच मैं कहा से आ गए, तो बात ये है की उन दिनों नर्मदा घाट का रास्ता तय करना सिर्फ ट्रैक्टर के ही बस की बात होती थी, कार की कोई मजाल नहीं की उन रास्तों पर चल सके । सो ट्राली में भूसा भर दिया जाता था , और उसे ढंककर आरामदेह सीट तैयार की जाती थी । पर ट्राली पर तो औरतें और बूढ़े लोग बैठते हैं, हमारी जिद तो ट्रैक्टर पर बैठकर जाने की होती थी । बस प्लान करते करते रात हो जाती, और सुबह जल्दी उठने के चक्कर मैं सारे सो जाते। उत्साह इतना की सुबह सुबह ४ बजे बिना आलस के उठके तैयार हो जाते । भंडारे का सारा सामन ट्राली पर रखने का काम हम बच्चा मंडली का होता। सामान रखा और बस ट्रैक्टर पर बैठ के इंतजार शुरू, धीरे धीरे मोहल्ले की औरतें और लोग आ जाते और फिर सूरज निकलने से पहले ही चल पड़ता हमारा कारंवा । अब जिसने ट्रैक्टर देखा हो तो उसे पता होगा की उसमे शॉक अब्सॉर्बर्स तो होते नहीं है, और ऊपर से रास्ता इतना उबड़ खाबड़ की बस उछलते कूदते रहते। पीछे ट्राली पर महिला मंडली का अब गीतों का सिलसिला शुरू हो चुका होता था "नरबदा मैया ऐसी बही रे जैसे गंगा और जमुना की धार रे… "। पर हमारा ध्यान तो आसपास के खेतों और नहरों पर होता, रास्ते में लोग दिखते जो पैदल ही सारा रास्ता तय करने पे आमदा से लगते, पर कुछ लोग हमारे साथ हो लेते। सूरज के आते आते हम भी घाट तक पहुंच ही जाते, जिस घाट पर हम लोग जाया करते थे उस घाट का नाम है 'वरमकुण्ड घाट'। सारे बड़े लोग भंडारे की तैयारियों में लग जाते और हम नहाने की। खैर एक बड़े व्यक्ति को हमारी जिम्मेदारी पकड़ा दी जाती और हमारी पानी में मटरगस्ती शुरू हो जाती। वरमकुंड घाट, जहाँ हम जाया करते थे, अपनी गहराईयों के लिए प्रसिद्द है, इसलिए हम जरा दूर उथले पानी में खेलते। कभी तैरने की नाकाम कोशिश होती तो कभी पानी में साँस रोकने की होड़। बीच बीच में हमें हिदायत भी मिलती रहती, खैर जब खेल खेल कर थक जाते तब कहीं पानी से बाहर निकलते। इतना खेलने के बाद भूख भी टूटकर लगती, अब हमारा गंतव्य भंडारा स्थल होता, जहाँ  खाना तैयार हो रहा होता था। पर अभी तो मंदिर में पूजा चल रही थी, इसलिए खाना मिलने में देर होती । हमें पूजा में चढ़ने वाला भोग पकड़ा दिया जाता और हम उसे लेकर  मंदिर चले जाते। पर मंदिर में मन न लगता, बस मौका पाकर निकल पड़ते घाट घूमने। घाट पर लोगों का आना बरक़रार था, कोई डुबकी लगा रहा होता तो कोई सूर्य को जल अर्पित कर रहा होता, कहीं लोग धमचौकड़ी मचा रहे होते तो कहीं लोग नदी किनारे पूजा पाठ में लगे होते। कुछ लोग ऊंचाई से नदी में कूद कूद कर अपनी तैराकी का लोहा मनवा रहे होते, तो कोई किनारे पर बैठकर लोटे से नहा रहा होता। कहीं लोग आराम से पेड़ के नीचे दरी बिछाकर घर से लाया हुआ खाना कहते, तो कोई वहीँ लकड़ी कंडे इखट्टा करके गांकर-भरता तैयार कर रहा होता। कहीं नाव पर सवार होकर लोग नदी पार जा रहे होते, तो कहीं नाव पर मोटरसाइकिल लादकर इस पर लाया जा रहा होता। बड़ा जीवंत दृश्य होता था वह। बस वहीँ एक कोने में नारियल-फूल की छोटी दुकानें भी होती, जहाँ पूजा का सारा सामन मिलता।लोग नारियल खरीदकर नर्मदा जी में समर्पित कर देते, तो छोटे छोटे बच्चे  कूदकर वो नारियल पकड़ लेते और वापस उन्ही दुकानों पर बेंच देते, और वो नारियल फल फिर दुकानों में सज जाते दुबारा से माँ नर्मदा को भेंट चढ़ने के लिए , बस यही वहां की अर्थव्यवस्था थी। जब गर्मी का मौसम होता था तो वहां मंदिर के पुजारी जी के घर पुदीने का शरबत वितरण हुआ करता था। ये शरबत पुदीन हरा की बोतल से नहीं बल्कि पुदीने की पत्तियों को पीस कर बनाया जाता था, हम भी वहीँ शरबत के एक दो गिलास डकार लेते। और वापस खाने की उम्मीद लेकर भंडारे में पहुंच जाते। वहां खाना लगभग शुरू हो चूका होता था, पूजन के बाद कन्याओं को सबसे पहले भोजन कराया जाता तब कहीं जाके भंडारा सबके लिए शुरू होता। पर हम तो मेजबान जो ठहरे, पहले लोगों को खाना खिलाना हमारी जिम्मेदारी थी। उठाई सब्जी पूरी की टोकरियाँ और सबके साथ साथ हम बच्चे भी खाना परोसने के काम में लग जाते। क्यूंकि हम भूखे थे, तो हमें भी सब लोग भूखे लगते, इसलिए हम भी दिल खोल के परोसते।  तब जाके ये चीज मुझे समझ आई की क्यों मम्मी पहले हम लोगों को खाना खिलाती हैं फिर खुद खाना खाती हैं, भरे पेट आप सामने वाले की भूख का अंदाजा नहीं लगा सकते। जब दादी जी हमें खाना परोसती हुई देखती तब वो हमें खाना खाने के लिए बुलातीं ,फिर हम बच्चों की अलग से पंगत बैठती और हमारी पेट पूजा की शुरुआत होती । पर जब एक बार हमारा पेट भर जाता तो फिर भंडारे में हमारे कदम न टिकते। फिर से घूमने फिरने निकल जाते और पूरा समय  नदी किनारे घुमा करते , शाम को लौटकर आते तब आते जब खाना का सिलसिला समाप्त हो चुका होता। बस अब थक चूर कर मन मार कर वापस आने की तयारी में लग जाते, सारा सामन वापस पैक और सूरज ढलते ढलते हम वापस भर की और निकल पड़ते। वापस आते वक्त मन बड़ा उदास होता, अगले दिन फिर से वही स्कूल, वही होमवर्क, वापस आने का मन ही न करता। बस फिर से दुबारा आने की उम्मीद से हम घर आ जाते।
        आज जब मैं उन दिनों को पलटकर देखता हूँ, तो बहुत बदलाव नजर आता है, हमारी पूरी चिल्लर पार्टी अब बड़ी हो गयी है, कोई बाहर पढ़ रहा है तो कोई अपने नौकरी पेशे में मशगूल है। न ही अब समय मिल पता है और न ही वो उत्साह रह गया है । पर आज भी इन तटों पर एक सुकून है भाग दौड़ से अलग यहाँ आज भी शांति का अनुभव किया जा सकता है। नर्मदा नदी आज भी ग्रामीण जीवन को उतना ही सहेजे है जितना आज से एक दशक पहले। नर्मदा किनारे जंगलों में आज भी कई आदिवासी समुदाय निवास करते हैं । यहाँ आज भी भीड़ भाड़ से अलग शांति है इसका मुख्य कारण ये भी है की यहाँ पर्यटन इतना विकसित नहीं हुआ है, और न ही इसके किनारे कोई बड़ा उद्योग पनपा। नर्मदा नदी हमेशा से मेरे जीवन का एक अटूट हिस्सा रही है, हमारे क्षेत्र में उसका बड़ा महत्व है, चाहे वो धार्मिक को या कृषि से जुड़ा हो। पर इंसान के लालच ने इस नदी को भी नहीं छोड़ा,  मुझे अभी भी याद है की नहाते वक्त सीने सीने पानी में भी मैं अपने पैर साफ साफ देख सकता था, इतना स्वच्छ होता था पानी।  सीधा अंजुली में लेकर जिस जल का हम आचमन करते थे, उस जल में आज स्वछता नहीं दिखाई देती। आजकल नर्मदा के किनारे बड़ी बड़ी फैक्टरियां लग गयीं हैं पानी दूषित होता जा रहा है। इसी तरह यदि नर्मदा में प्रदुषण बढ़ता रहा तो स्थिति चिंताजनक तो सकती है। आज जब मैं यहाँ कानपुर में गंगा नदी की ये दुर्दशा देखता हूँ तो मुझे नर्मदा का भविष्य दिखता है। पर एक उजाले की किरण भी दिख रही है, ऐसे कई समुदाय और गैर सरकारी संगठन सामने आ रहे हैं, और नर्मदा की सफाई पर सराहनीय प्रयास कर रहे है। बेशक विकास आवश्यक है, पर इस कीमत पर नहीं की हम अपनी नदियों को ही बर्बाद कर दें। ये नदियां हमारी धरोहर हैं, हमारे गौरवशाली इतिहास की गवाह हैं, इन धरोहरों को सहेजना और आने वाली पीढ़ी को उतने ही समृद्ध रूप में देना, जिस रूप में हमने इसे अपने पूर्वजों से हासिल किया, हमारा कर्तव्य है । 

Saturday, January 25, 2014

मेरा गाँव...

               बात उन दिनों कि है जब बड़ा छोटा था मैं । वार्षिक परीक्षाएं खत्म हुईं नहीं कि बस मामा के घर जाने कि रट लग जाती थी । दादी से कहानियां तो साल भर सुनते थे, अब नानी से किस्से सुनने की जो बारी थी । पहुँच जाते थे जेठ और आसाढ़ की लू का आनंद लेने अपने ननिहाल । उस समय ज्यादा समझ तो नहीं थी, पर मन के किसी कोने मैं इतना आभास जरुर था कि गांव कि गलियां, कस्बे की सड़कों के कहीं ज्यादा अपनी हैं । वहाँ के हर घर में मामा और नाना हुआ करते थे। जाते तो थे हम चंद दिनों के लिए पर सारे गॉव से रिश्ता बन जाता था। कोई मामा कोई मामी, कोई नाना तो कोई नानी । सारे गॉव के भांजे बनकर घूमते थे। बिजली तो उन दिनों शहरों में भी मयस्सर नहीं थी तो फिर गॉव देहातों कि बात तो करना ही क्या। शाम होते ही जिद पकड़ कर बैठ जाते थे, नानी किस्सा सुनाओ, नानी कहानी सुनाओ। कड़ी मस्सकत के बाद जब नानी कहानी सुनाने बैठतीं थी, तो सारी चिल्लर पार्टी उन्हें घेरकर बैठ जाती। किस्सा शुरू होने से पहले एक शर्त रखी जाती थी कि बीच बीच में हामी भरनी होगी । शर्त स्वीकार और कहानी शुरू, बस फिर सब कुछ भूलकर खो जाते थे राजा-रानी, जादू मंतर की दुनियां मे। चाहे रामायण महाभारत हो या फिर झांसी की रानी के किस्से, सबकुछ हम इन्ही कहानियों के जरिये सीखे। इसी बीच खबर आती कि ब्यारु तैयार है, कहानी को बीच में ही रोक दिया जाता और हम बड़े बेमन से खाना खाने बैठ जाते। जहाँ गौ-धन कि कमी न हो वहाँ कि चपातियां तो घी में डूबी हुई  सी मिलती थी, और फिर शिकायत करो तो उल्टा हमें ही सुनने को मिलता था। "कितने दुबरिया गए हो , चेहरा देखो सूख  के तन्नक सो रेह गओ है, आन दे तेरी मम्मी को,ऐसो सुनाऊगी कि याद रक्खेगी वो"। जैसे तैसे खाना ख़त्म करके हम फिर नानी के पास, इंटरवल ख़तम और कहानी फिर शुरू। पर अबकी बार तो पेट भरा हुआ था, तो नींद भी पीछे पीछे आने लगती थी। कोई जवाई ले रहा होता था, तो कोई पहले ही निद्रा देवी कि उपासना में लीन होता था। बस फिर क्या था, सबके बिस्तर तैयार, चिल्लर पार्टी के लिए विशेष बंदोबस्त किये जाते थे। ट्राली के सारे पल्लों को खोलकर बीच खलिहान में लाया जाता और उस पर हमारा बिस्तर लगाया जाता। बिजली तो कुछ पल की मेहमान होती थी, पर रात कि हवा खेतों में सिचाई कि वजह से ठंडी तो जाती थी और कूलर का काम करती थी। रात भर बड़ी चैन से सोते, न होमवर्क कि चिंता न एग्जाम का डर। सुबह में कोई कितना भी उठता रहे , उठते तभी थे,जब धूप आ जाती थी। चाय तो छोटे बच्चे नहीं पीते, इसलिए हमें दूध और सिर्फ दूध मिलता। मलाई से मुझे हमेशा से सख्त नफरत रही है, इसलिए मुझे भैंस का कच्चा दूध मिलता। खैर कलेवा करके हम निकल जाते खेलने और लौटते दोपहर को। जहाँ तक नहाने कि बात होती तो ट्यूब-बेल के होते हुए कौन बाल्टी से नहाना पसंद करता। सब के सब दौड़ लगते ट्यूब-बेल की तरफ, और जा भिड़ते उसकी मोटी सी धर से। पास ही में एक सीमेंट कि टंकी हुआ करती थी, जो हमारा बाथ-टब बन जाया करती थी, धमा-चौकड़ी करके जब थक जाते तब कहीं जाके हमारा नहाना बंद होता। खाना खिला पिला कर हमको कमरों में बंद कर दिया जाता और तब तक बहार निकलने न मिलता जब तक बाहर धूप होती। यही वो समय होता जो हम बड़ी मुश्किल से काटते, पर शाम होती और सारी बारात निकल पड़ती मामा जी के साथ ग्राम भ्रमण को। कहीं बिद्दू मामा मिलते तो कहीं राहुल नाना, कहीं मटके बन रहे होते तो कहीं टोकरे, कहीं ट्रैक्टर खड़े दिखते तो कहीं हल-बखर। हमारी बारात सब कुछ देखती रहती और आगे बढ़ जाती। रास्ते में कोई पहचान के बुजुर्ग देखते तो नमस्ते करके हम मामा जी को आगे कर देते, वो ही हमारी कुंडली उनको बताते। गांव का एक चक्कर लगा के हम वापस घर और फिर वही कहानी की रट शुरू हो जाती। 
            ये वो दिन हुआ करते थे, जब हम अपने आप को चिंतामुक्त और स्वच्छंद महसूस किया करते थे। झूठ बोलते थे पर सिर्फ अपने भाई बहन से ज्यादा चॉकलेट लेने के लिए या मार से बचने के लिए। लड़ते थे, झगड़ते थे पर अगले ही दिन फिर से साथ खेलते भी थे। 
             आज जब मैं उस गॉव जाता हूँ, तो तनिक बदला बदला सा पाता हूँ।वहाँ जाने वाली सड़क आज मिटटी कि नहीं डामल की है, आजकल घर पर खपड़े नहीं लेंटर दिखते हैं, अब बैलगाड़ी कम स्प्लेंडर प्लस ज्यादा दिखती है। हल-बैल तो अब दिखते ही नहीं ट्रैक्टर दिखायी पड़ते हैं, अब जात-पात का असर न के बराबर सा दिखता है, मोबाइल अब हर हाथ में दिखाई पड़ते हैं। पर कुछ बदलाव मुझे सुखद नहीं प्रतीत होते, पहले शादी वाले घर में गांव की सारी महिलाएं ऐसे जुटी रहती थी कि जैसे उनके घर में ही शादी हो, खाना बनना हो तो बाहर से  खाना बनाने वाला नहीं आता था, सारा महिला वर्ग ही ये काम निपटा लिया करता था, शादी गरीब के घर हो तो हर घर से अन्न धन दिया जाता था। पंचायत में ही छोटे मोटे मामले निपटते हुए मैंने खुद देखे थे। अधिकतर परिवार संयुक्त परिवार हुआ करते थे। वक्त बमुश्किल १० साल ही गुजरा होगा, पर आज कल शादी बहुत हद तक सिर्फ पारिवारिक घटना बन कर रह गयी है, अब मामले आसानी से नहीं निपट पाते। गॉव के बुजुर्ग अब सिर्फ घर कि तखत तक ही सीमित रह गए हैं। पिछली बार जब वहाँ गया था तो एक औरत को जला दिए जाने कि खबर भी सुनी थी।
            पर आज भी गाँव में आकर एक सुकून सा मिलता है, आज भी उतना ही अपनापन उतना ही प्यार।  सुबह शाम पक्षियों कि चहचहाहट, गाय भैंसों का रंभाना आज भी कायम है।कई बार लगता है ये गांव नहीं बदला, पर शायद हम ही बदल गए हैं ।