Friday, October 27, 2017

विदा ! अप्पा जी

गिरिजा जी की गाई हुई कजरी " बरसन लागी बदरिया, रूम झूम के " या "घिर आयी है कारी बदरिया " सुनता हूँ तो मन स्वतः इस शहर की पक्की सड़कों से सीधे, सावन में घिरे हुए काले काले बादलों की ओर चला जाता है, जहाँ में अपने गाँव के खेतों में पगडण्डी पे चला जा रहा हूँ और आसपास नई नई पत्तियों से लैस पेड़ पौधे लहलहा रहे हैं, मंद मंद पवन चल रही है और बारिश की फुहार चेहरे पर पढ़कर मुझे तरोताजा कर रही हैं। ऐसा असर था उनकी आवाज़ का मुझ पर।
    जब गिरिजा जी को मैंने पहली बार सुना तो उनकी आवाज़ कुछ अटपटी सी लगी, और कुछ खास असर नहीं हुआ। पर जैसे जैसे उनको सुनता गया उतना ही उनके रस में सराबोर होता गया। जब वो पान का बीड़ा अपने मुंह में दबाकर सुर साधती थीं तो बस मंत्रमुग्ध सा उनके संगीत के पाश में बंध जाता था। हालाँकि वो शास्त्रीय संगीत की हर विधा में निपुण थीं पर उनकी ठुमरी, चैती, होरी ने उन्हें लोक ह्रदय में "ठुमरी की रानी" का स्थान दिया। 
     एक बात जो भारतीय संगीत और खासकर शास्त्रीय संगीत में खास है वो है संगीत और अध्यात्म का गुंथा होना। संगीत और अध्यात्म भारतीय संगीत में हांथों हाँथ चलते हैं। स्वर से ईश्वर तक जाना, साकार से निराकार को साधना, कलाकार का लक्ष्य होता है। और इसी यात्रा में संगीत उसकी  तपस्या बन जाता है। और उसी तप के पुण्य प्रताप की बौछार श्रोताओं पर होती है जब वो इन कलाकारों को सुनता है। वो कहते हैं न जिसके पास जितना बड़ा घड़ा है उतना ही पानी उसमें आता है, बस वही हाल हम श्रोताओं का है जितनी समझ उतना आनंद। जहाँ तक मेरी बात है तो मुझे अभी संगीत की उतनी समझ नहीं है जितनी मेरी इच्छा है। पर जिस प्रकार मोर भूगोल को समझे बिना भी बरसात आनंद लेता है, उसी प्रकार में भी संगीत को सुनता हूँ और अपने को भिगो लेता हूँ। 
     गिरिजा देवीजी की आवाज़ में सरलता और सच्चाई दीख पड़ती है जो एक शायद आज के समय में दुर्लभ है। शायद इसलिए जब वो गाती हैं  "रंग डारूंगी, नन्द के लालन पे" तो राधा रानी और कृष्ण ब्रज में आपकी आँखों के सामने होरी खेलते प्रतीत होते हैं। 8 दशक की अथक तपस्या का ही ये फल था की सरस्वती उनकी जिह्वा पर विराजमान थीं और वो आखिर तक उसी अंदाज़ में गाती रही जैसे अभी भी 30 - 35 बरस की हो। 
    जैसे बंद आँखों पर भी सूरज की लालिमा पड़ती है और अँधा भी सूर्य के ओज़ को महसूस करता है बस वैसे ही मेरा विवरण है। इसमें कोई शंका नहीं है की गिरिजा देवी का व्यक्तित्व का वर्णन मेरी क्षमता से परे है और कोई संगीत में पांडित्य रखने वाला या उनका निकटतम व्यक्ति ही शायद उनके संगीत के हर आयाम को न्यायपूर्वक बयां कर सके। पर फिर भी मुझ अंधे का यह हक़ तो है उस सूर्य को अपना अर्ध्य देकर अपना आभार प्रकट कर सकूँ। 
    विदा संगीत साम्राज्ञी, विदुषी गिरिजा देवी जी।