Saturday, January 25, 2014

मेरा गाँव...

               बात उन दिनों कि है जब बड़ा छोटा था मैं । वार्षिक परीक्षाएं खत्म हुईं नहीं कि बस मामा के घर जाने कि रट लग जाती थी । दादी से कहानियां तो साल भर सुनते थे, अब नानी से किस्से सुनने की जो बारी थी । पहुँच जाते थे जेठ और आसाढ़ की लू का आनंद लेने अपने ननिहाल । उस समय ज्यादा समझ तो नहीं थी, पर मन के किसी कोने मैं इतना आभास जरुर था कि गांव कि गलियां, कस्बे की सड़कों के कहीं ज्यादा अपनी हैं । वहाँ के हर घर में मामा और नाना हुआ करते थे। जाते तो थे हम चंद दिनों के लिए पर सारे गॉव से रिश्ता बन जाता था। कोई मामा कोई मामी, कोई नाना तो कोई नानी । सारे गॉव के भांजे बनकर घूमते थे। बिजली तो उन दिनों शहरों में भी मयस्सर नहीं थी तो फिर गॉव देहातों कि बात तो करना ही क्या। शाम होते ही जिद पकड़ कर बैठ जाते थे, नानी किस्सा सुनाओ, नानी कहानी सुनाओ। कड़ी मस्सकत के बाद जब नानी कहानी सुनाने बैठतीं थी, तो सारी चिल्लर पार्टी उन्हें घेरकर बैठ जाती। किस्सा शुरू होने से पहले एक शर्त रखी जाती थी कि बीच बीच में हामी भरनी होगी । शर्त स्वीकार और कहानी शुरू, बस फिर सब कुछ भूलकर खो जाते थे राजा-रानी, जादू मंतर की दुनियां मे। चाहे रामायण महाभारत हो या फिर झांसी की रानी के किस्से, सबकुछ हम इन्ही कहानियों के जरिये सीखे। इसी बीच खबर आती कि ब्यारु तैयार है, कहानी को बीच में ही रोक दिया जाता और हम बड़े बेमन से खाना खाने बैठ जाते। जहाँ गौ-धन कि कमी न हो वहाँ कि चपातियां तो घी में डूबी हुई  सी मिलती थी, और फिर शिकायत करो तो उल्टा हमें ही सुनने को मिलता था। "कितने दुबरिया गए हो , चेहरा देखो सूख  के तन्नक सो रेह गओ है, आन दे तेरी मम्मी को,ऐसो सुनाऊगी कि याद रक्खेगी वो"। जैसे तैसे खाना ख़त्म करके हम फिर नानी के पास, इंटरवल ख़तम और कहानी फिर शुरू। पर अबकी बार तो पेट भरा हुआ था, तो नींद भी पीछे पीछे आने लगती थी। कोई जवाई ले रहा होता था, तो कोई पहले ही निद्रा देवी कि उपासना में लीन होता था। बस फिर क्या था, सबके बिस्तर तैयार, चिल्लर पार्टी के लिए विशेष बंदोबस्त किये जाते थे। ट्राली के सारे पल्लों को खोलकर बीच खलिहान में लाया जाता और उस पर हमारा बिस्तर लगाया जाता। बिजली तो कुछ पल की मेहमान होती थी, पर रात कि हवा खेतों में सिचाई कि वजह से ठंडी तो जाती थी और कूलर का काम करती थी। रात भर बड़ी चैन से सोते, न होमवर्क कि चिंता न एग्जाम का डर। सुबह में कोई कितना भी उठता रहे , उठते तभी थे,जब धूप आ जाती थी। चाय तो छोटे बच्चे नहीं पीते, इसलिए हमें दूध और सिर्फ दूध मिलता। मलाई से मुझे हमेशा से सख्त नफरत रही है, इसलिए मुझे भैंस का कच्चा दूध मिलता। खैर कलेवा करके हम निकल जाते खेलने और लौटते दोपहर को। जहाँ तक नहाने कि बात होती तो ट्यूब-बेल के होते हुए कौन बाल्टी से नहाना पसंद करता। सब के सब दौड़ लगते ट्यूब-बेल की तरफ, और जा भिड़ते उसकी मोटी सी धर से। पास ही में एक सीमेंट कि टंकी हुआ करती थी, जो हमारा बाथ-टब बन जाया करती थी, धमा-चौकड़ी करके जब थक जाते तब कहीं जाके हमारा नहाना बंद होता। खाना खिला पिला कर हमको कमरों में बंद कर दिया जाता और तब तक बहार निकलने न मिलता जब तक बाहर धूप होती। यही वो समय होता जो हम बड़ी मुश्किल से काटते, पर शाम होती और सारी बारात निकल पड़ती मामा जी के साथ ग्राम भ्रमण को। कहीं बिद्दू मामा मिलते तो कहीं राहुल नाना, कहीं मटके बन रहे होते तो कहीं टोकरे, कहीं ट्रैक्टर खड़े दिखते तो कहीं हल-बखर। हमारी बारात सब कुछ देखती रहती और आगे बढ़ जाती। रास्ते में कोई पहचान के बुजुर्ग देखते तो नमस्ते करके हम मामा जी को आगे कर देते, वो ही हमारी कुंडली उनको बताते। गांव का एक चक्कर लगा के हम वापस घर और फिर वही कहानी की रट शुरू हो जाती। 
            ये वो दिन हुआ करते थे, जब हम अपने आप को चिंतामुक्त और स्वच्छंद महसूस किया करते थे। झूठ बोलते थे पर सिर्फ अपने भाई बहन से ज्यादा चॉकलेट लेने के लिए या मार से बचने के लिए। लड़ते थे, झगड़ते थे पर अगले ही दिन फिर से साथ खेलते भी थे। 
             आज जब मैं उस गॉव जाता हूँ, तो तनिक बदला बदला सा पाता हूँ।वहाँ जाने वाली सड़क आज मिटटी कि नहीं डामल की है, आजकल घर पर खपड़े नहीं लेंटर दिखते हैं, अब बैलगाड़ी कम स्प्लेंडर प्लस ज्यादा दिखती है। हल-बैल तो अब दिखते ही नहीं ट्रैक्टर दिखायी पड़ते हैं, अब जात-पात का असर न के बराबर सा दिखता है, मोबाइल अब हर हाथ में दिखाई पड़ते हैं। पर कुछ बदलाव मुझे सुखद नहीं प्रतीत होते, पहले शादी वाले घर में गांव की सारी महिलाएं ऐसे जुटी रहती थी कि जैसे उनके घर में ही शादी हो, खाना बनना हो तो बाहर से  खाना बनाने वाला नहीं आता था, सारा महिला वर्ग ही ये काम निपटा लिया करता था, शादी गरीब के घर हो तो हर घर से अन्न धन दिया जाता था। पंचायत में ही छोटे मोटे मामले निपटते हुए मैंने खुद देखे थे। अधिकतर परिवार संयुक्त परिवार हुआ करते थे। वक्त बमुश्किल १० साल ही गुजरा होगा, पर आज कल शादी बहुत हद तक सिर्फ पारिवारिक घटना बन कर रह गयी है, अब मामले आसानी से नहीं निपट पाते। गॉव के बुजुर्ग अब सिर्फ घर कि तखत तक ही सीमित रह गए हैं। पिछली बार जब वहाँ गया था तो एक औरत को जला दिए जाने कि खबर भी सुनी थी।
            पर आज भी गाँव में आकर एक सुकून सा मिलता है, आज भी उतना ही अपनापन उतना ही प्यार।  सुबह शाम पक्षियों कि चहचहाहट, गाय भैंसों का रंभाना आज भी कायम है।कई बार लगता है ये गांव नहीं बदला, पर शायद हम ही बदल गए हैं । 

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