Sunday, April 20, 2014

नर्बदा मैया हो !!!

आज बस यूँ ही लोकगीत सुनने का मन किया, सुनते सुनते  राकेश तिवारी का एक लोकगीत नजर आया। "नर्बदा मैया हो... ", अब जो नर्मदांचल के निवासी हैं उन्होंने तो जरूर ही इस गीत को सुना होगा। जैसे जैसे इसे सुनता गया मन लौट गया उन दिनों की ओर जब हम नर्मदा स्नान के लिए जाते थे। अब चाहे मकर संक्रांति का मौका हो या फिर नर्मदा जयंती, बस मौका मिलता और प्लान तैयार। भंडारे की तैयारी का काम तो घर के बड़े लोग सँभालते थे, हम तो बस शुरू हो जाते अपना मास्टर प्लान बनाने में। सबको खबर कर दी जाती और पूरी चिल्लर पार्टी अगले दिन घर पे इकहट्टा हो जाती। "इस बार तो एक घंटे  से कम  नहीं नहायेंगे, चाहे कोई कितना भी रोके", मैं बोलता , "और हाँ इस बार तो तैरना सीखना ही है", बाजू से आवाज आती। यहाँ बाहर से खबर आती की टैक्टर ट्राली तैयार हो रहे हैं, अब आपको लगता होगा की ये  टैक्टर ट्राली बीच मैं कहा से आ गए, तो बात ये है की उन दिनों नर्मदा घाट का रास्ता तय करना सिर्फ ट्रैक्टर के ही बस की बात होती थी, कार की कोई मजाल नहीं की उन रास्तों पर चल सके । सो ट्राली में भूसा भर दिया जाता था , और उसे ढंककर आरामदेह सीट तैयार की जाती थी । पर ट्राली पर तो औरतें और बूढ़े लोग बैठते हैं, हमारी जिद तो ट्रैक्टर पर बैठकर जाने की होती थी । बस प्लान करते करते रात हो जाती, और सुबह जल्दी उठने के चक्कर मैं सारे सो जाते। उत्साह इतना की सुबह सुबह ४ बजे बिना आलस के उठके तैयार हो जाते । भंडारे का सारा सामन ट्राली पर रखने का काम हम बच्चा मंडली का होता। सामान रखा और बस ट्रैक्टर पर बैठ के इंतजार शुरू, धीरे धीरे मोहल्ले की औरतें और लोग आ जाते और फिर सूरज निकलने से पहले ही चल पड़ता हमारा कारंवा । अब जिसने ट्रैक्टर देखा हो तो उसे पता होगा की उसमे शॉक अब्सॉर्बर्स तो होते नहीं है, और ऊपर से रास्ता इतना उबड़ खाबड़ की बस उछलते कूदते रहते। पीछे ट्राली पर महिला मंडली का अब गीतों का सिलसिला शुरू हो चुका होता था "नरबदा मैया ऐसी बही रे जैसे गंगा और जमुना की धार रे… "। पर हमारा ध्यान तो आसपास के खेतों और नहरों पर होता, रास्ते में लोग दिखते जो पैदल ही सारा रास्ता तय करने पे आमदा से लगते, पर कुछ लोग हमारे साथ हो लेते। सूरज के आते आते हम भी घाट तक पहुंच ही जाते, जिस घाट पर हम लोग जाया करते थे उस घाट का नाम है 'वरमकुण्ड घाट'। सारे बड़े लोग भंडारे की तैयारियों में लग जाते और हम नहाने की। खैर एक बड़े व्यक्ति को हमारी जिम्मेदारी पकड़ा दी जाती और हमारी पानी में मटरगस्ती शुरू हो जाती। वरमकुंड घाट, जहाँ हम जाया करते थे, अपनी गहराईयों के लिए प्रसिद्द है, इसलिए हम जरा दूर उथले पानी में खेलते। कभी तैरने की नाकाम कोशिश होती तो कभी पानी में साँस रोकने की होड़। बीच बीच में हमें हिदायत भी मिलती रहती, खैर जब खेल खेल कर थक जाते तब कहीं पानी से बाहर निकलते। इतना खेलने के बाद भूख भी टूटकर लगती, अब हमारा गंतव्य भंडारा स्थल होता, जहाँ  खाना तैयार हो रहा होता था। पर अभी तो मंदिर में पूजा चल रही थी, इसलिए खाना मिलने में देर होती । हमें पूजा में चढ़ने वाला भोग पकड़ा दिया जाता और हम उसे लेकर  मंदिर चले जाते। पर मंदिर में मन न लगता, बस मौका पाकर निकल पड़ते घाट घूमने। घाट पर लोगों का आना बरक़रार था, कोई डुबकी लगा रहा होता तो कोई सूर्य को जल अर्पित कर रहा होता, कहीं लोग धमचौकड़ी मचा रहे होते तो कहीं लोग नदी किनारे पूजा पाठ में लगे होते। कुछ लोग ऊंचाई से नदी में कूद कूद कर अपनी तैराकी का लोहा मनवा रहे होते, तो कोई किनारे पर बैठकर लोटे से नहा रहा होता। कहीं लोग आराम से पेड़ के नीचे दरी बिछाकर घर से लाया हुआ खाना कहते, तो कोई वहीँ लकड़ी कंडे इखट्टा करके गांकर-भरता तैयार कर रहा होता। कहीं नाव पर सवार होकर लोग नदी पार जा रहे होते, तो कहीं नाव पर मोटरसाइकिल लादकर इस पर लाया जा रहा होता। बड़ा जीवंत दृश्य होता था वह। बस वहीँ एक कोने में नारियल-फूल की छोटी दुकानें भी होती, जहाँ पूजा का सारा सामन मिलता।लोग नारियल खरीदकर नर्मदा जी में समर्पित कर देते, तो छोटे छोटे बच्चे  कूदकर वो नारियल पकड़ लेते और वापस उन्ही दुकानों पर बेंच देते, और वो नारियल फल फिर दुकानों में सज जाते दुबारा से माँ नर्मदा को भेंट चढ़ने के लिए , बस यही वहां की अर्थव्यवस्था थी। जब गर्मी का मौसम होता था तो वहां मंदिर के पुजारी जी के घर पुदीने का शरबत वितरण हुआ करता था। ये शरबत पुदीन हरा की बोतल से नहीं बल्कि पुदीने की पत्तियों को पीस कर बनाया जाता था, हम भी वहीँ शरबत के एक दो गिलास डकार लेते। और वापस खाने की उम्मीद लेकर भंडारे में पहुंच जाते। वहां खाना लगभग शुरू हो चूका होता था, पूजन के बाद कन्याओं को सबसे पहले भोजन कराया जाता तब कहीं जाके भंडारा सबके लिए शुरू होता। पर हम तो मेजबान जो ठहरे, पहले लोगों को खाना खिलाना हमारी जिम्मेदारी थी। उठाई सब्जी पूरी की टोकरियाँ और सबके साथ साथ हम बच्चे भी खाना परोसने के काम में लग जाते। क्यूंकि हम भूखे थे, तो हमें भी सब लोग भूखे लगते, इसलिए हम भी दिल खोल के परोसते।  तब जाके ये चीज मुझे समझ आई की क्यों मम्मी पहले हम लोगों को खाना खिलाती हैं फिर खुद खाना खाती हैं, भरे पेट आप सामने वाले की भूख का अंदाजा नहीं लगा सकते। जब दादी जी हमें खाना परोसती हुई देखती तब वो हमें खाना खाने के लिए बुलातीं ,फिर हम बच्चों की अलग से पंगत बैठती और हमारी पेट पूजा की शुरुआत होती । पर जब एक बार हमारा पेट भर जाता तो फिर भंडारे में हमारे कदम न टिकते। फिर से घूमने फिरने निकल जाते और पूरा समय  नदी किनारे घुमा करते , शाम को लौटकर आते तब आते जब खाना का सिलसिला समाप्त हो चुका होता। बस अब थक चूर कर मन मार कर वापस आने की तयारी में लग जाते, सारा सामन वापस पैक और सूरज ढलते ढलते हम वापस भर की और निकल पड़ते। वापस आते वक्त मन बड़ा उदास होता, अगले दिन फिर से वही स्कूल, वही होमवर्क, वापस आने का मन ही न करता। बस फिर से दुबारा आने की उम्मीद से हम घर आ जाते।
        आज जब मैं उन दिनों को पलटकर देखता हूँ, तो बहुत बदलाव नजर आता है, हमारी पूरी चिल्लर पार्टी अब बड़ी हो गयी है, कोई बाहर पढ़ रहा है तो कोई अपने नौकरी पेशे में मशगूल है। न ही अब समय मिल पता है और न ही वो उत्साह रह गया है । पर आज भी इन तटों पर एक सुकून है भाग दौड़ से अलग यहाँ आज भी शांति का अनुभव किया जा सकता है। नर्मदा नदी आज भी ग्रामीण जीवन को उतना ही सहेजे है जितना आज से एक दशक पहले। नर्मदा किनारे जंगलों में आज भी कई आदिवासी समुदाय निवास करते हैं । यहाँ आज भी भीड़ भाड़ से अलग शांति है इसका मुख्य कारण ये भी है की यहाँ पर्यटन इतना विकसित नहीं हुआ है, और न ही इसके किनारे कोई बड़ा उद्योग पनपा। नर्मदा नदी हमेशा से मेरे जीवन का एक अटूट हिस्सा रही है, हमारे क्षेत्र में उसका बड़ा महत्व है, चाहे वो धार्मिक को या कृषि से जुड़ा हो। पर इंसान के लालच ने इस नदी को भी नहीं छोड़ा,  मुझे अभी भी याद है की नहाते वक्त सीने सीने पानी में भी मैं अपने पैर साफ साफ देख सकता था, इतना स्वच्छ होता था पानी।  सीधा अंजुली में लेकर जिस जल का हम आचमन करते थे, उस जल में आज स्वछता नहीं दिखाई देती। आजकल नर्मदा के किनारे बड़ी बड़ी फैक्टरियां लग गयीं हैं पानी दूषित होता जा रहा है। इसी तरह यदि नर्मदा में प्रदुषण बढ़ता रहा तो स्थिति चिंताजनक तो सकती है। आज जब मैं यहाँ कानपुर में गंगा नदी की ये दुर्दशा देखता हूँ तो मुझे नर्मदा का भविष्य दिखता है। पर एक उजाले की किरण भी दिख रही है, ऐसे कई समुदाय और गैर सरकारी संगठन सामने आ रहे हैं, और नर्मदा की सफाई पर सराहनीय प्रयास कर रहे है। बेशक विकास आवश्यक है, पर इस कीमत पर नहीं की हम अपनी नदियों को ही बर्बाद कर दें। ये नदियां हमारी धरोहर हैं, हमारे गौरवशाली इतिहास की गवाह हैं, इन धरोहरों को सहेजना और आने वाली पीढ़ी को उतने ही समृद्ध रूप में देना, जिस रूप में हमने इसे अपने पूर्वजों से हासिल किया, हमारा कर्तव्य है । 

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