Tuesday, July 29, 2014

हमारे किसान

          पिछले कुछ समय से मैं एक जाने माने पत्रकार  पी. साईनाथ जी के कुछ वीडियो देख रहा हूँ, विदर्भ और आँध्रप्रदेश में हो रही किसानों की आत्महत्या के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर लाने का बहुत बड़ा श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने भारतीय किसानों की स्थिति पर जो कार्य किया है, वो निसंदेह सराहनीय है। विदर्भ की जो तस्वीर वो जनता के सामने पेश करते हैं वो अत्यंत दुखद है पर दुर्भाग्यवश उतनी ही सच्ची है। जब साईनाथ  उन किसानों की वर्तमान स्थिति का वर्णन करते है, तो उसमें मुझे मेरे क्षेत्र के किसानों का भविष्य नजर आता है। हालाँकि मैं कृषि के क्षेत्र का कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, पर एक किसान परिवार से आने के कारण मुझे अपने क्षेत्र के किसानों की समस्याओं का कुछ हद तक ज्ञान है। 
           यदि हमें आज की स्थिति का आंकलन करना है तो उसके लिए अतीत में जाना जरुरी है, क्यूंकि तभी हम वर्तमान की सही समीक्षा कर सकेंगे। अतीत के लिए यहाँ मुझे अपने दादा-दादी की सुनाई हुई घटनाओं पर निर्भर करना होगा । तकरीबन पचास साल पहले, जब किसानी में न ही सिंचाई के लिए पम्प का उपयोग होता था और न ही जुताई के लिए ट्रेक्टर का। उस समय कृषि सिर्फ मानसून पर ही निर्भर करती थी, और अधिकतर किसान साल में एक फसल ही निकाल पाता था। बरसात के दिनों में गांव के गांव नदी में बाढ़ के कारण या ख़राब सड़क के कारण मुख्य धरा से कट जाते थे, साल के चार महीने अपने गांव तक ही सीमित रहना उनकी मजबूरी बन जाती थी। यहाँ तक की गांव से खेतों की ओर जाने वाली पगडंडियों पर चलना दूभर हो जाता था। पर इसे किसान की मजबूरी कहें या उनकी सूझ बूझ, वे बरसात के मौसम में खेत को परती (जमीन पर फसल न बोना ) छोड़ दिया करते थे, और बरसात आने के पहले ही वे अपने खेतों की मेढ को बाँध दिया करते थे। इस कारण पूरे चार महीने के लिए खेत पानी में डूबे रहते थे, फलस्वरूप जमीन का जल स्तर अच्छा हो जाता था और खेतों में जो घास-फूस हो जाया करती थी वो इतने समय पानी में डूबे रहने के कारण नष्ट हो जाती थी। और हर एक गाँव में जो कई छोटे बड़े तालाब होते थे वे भी लबालब भर जाते थे। यूरिया फॉस्फेट तो उस समय किसान को मयस्सर नहीं थे इसलिए खाद के लिए सिर्फ गाय-भैंस का गोबर का प्रयोग हुआ करता था। अब चूंकि खाद की जरूरत है तो हर किसान के घर में पशु हुआ करते थे। गाय-भैंस  दूध-गोबर के लिए काम आती थी और बैल हल बखर-गोबर के लिये। ट्रैक्टर हार्वेस्टर नहीं थे तो जुताई से लेकर कटाई तक सारा काम हाथों से होता था, तो मजदूर की जरूरत ज्यादा होती थी। जो फसल बोई जाती थी उसमें गेहूं, चना, चावल, बाजरा, मटर, दालें मुख्य थीं। इन फसलों से फायदा ये होता था की किसान अपने पेट के लिए अनाज स्वयं पैदा कर लेता था, और जरूरत से ज्यादा अनाज बाजार में बेच देता था। 
          प्राकृतिक और तकनीकी समस्यों के अलावा भी किसान बंधुआ मजदूरी, साहूकारी और जमीदारी जैसी सामाजिक और आर्थिक समस्यायों से ग्रस्त था। इस समस्यायों का मुख्य शिकार अधिकतर छोटे किसान हुआ करते थे, अपनी जमीन पर वे मजदूर बन कर रह जाते थे । बैंक या सरकारी ऋण उपलब्ध न होने के कारण किसान धन के लिए साहूकारों पर निर्भर था. और यदि किसी साल बरसात कम हुई या फसल किसी कारण ख़राब हो गयी तो किसान कर्ज में इस कदर डूबता था की आखिरकार जमीन बेंचकर ही कर्जमुक्त हो पता था।
        आज स्थिति बदली है, कुछ मामलों में बदलाव अच्छे के लिए हुआ है, और कुछ मामलों में बुरे के लिए। अब अधिकतर गांव बेहतर सड़कों से साल के बारह महीने मुख्य धारा से जुड़े हैं । अब हल-बैल बमुश्किल ही देखने को मिलते हैं । जो काम एक हल कई दिनों में कर पता था , आज एक ट्रैक्टर उसी काम को चंद घंटों में पूरा कर देता है। आज हर किसान साल में कम से कम तीन फसलें लेता है । सिचाई के लिए आज नहर और बोरबेल उपलब्ध है। खाद के लिए अब गोबर वाली खाद पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। आज हमारे क्षेत्र का किसान सोयाबीन और गन्ने जैसी फसलें, जो पानी का अत्यधिक उपयोग करती हैं, की उपज कर रहा है।
           यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा है तो फिर मैंने जो ऊपर कहा की मुझे आज के बिदर्भ में कल का नर्मदांचल दिखता है, वो तो पूर्णता गलत है। पर क्या सब कुछ सही चल रहा है ? उत्तर है नहीं । मैं उन बदलावों की बात कर रहा हूँ जो मैंने खुद पिछले एक दशक में देखे है। आज गांवों में आपको बमुश्किल ही एकाध तालाब मिलेगा, अधिकतर तालाब अब खेत बन गए हैं । अब कोई किसान बरसात के दिनों में अपना खेत परती नहीं छोड़ता, पर भू जल का उपयोग छक के करता है । अब किसान अनाज वाली फसलों से नकदी फसलों की तरफ कूच कर रहा है। जहाँ पहले गेंहू और चावल के खेत हुआ करते है वहां आज गन्ने लहलहाते हैं। सिर्फ नरसिंहपुर जिले में कम से कम सात से आठ बड़ी शुगर फैक्ट्रियां हैं । किसान बड़ी मात्रा में अनाज से गन्ने की ओर जा रहा है। एकमुश्त रकम मिलना और इससे भी ज्यादा समय पर भुगतान होना सबसे बड़ा कारण है । गन्ने की फसल में पानी की बहुत ज्यादा जरूरत होती है, और इस जरूरत के लिए दोहन होता है भू जल का, कुछ वर्ष पहले जो जल स्तर 25 से 50 फ़ीट पर था, वो आज 150 से 180 फ़ीट पर जा पहुंचा है। पर सबसे बड़ी दिक्कत यह है की इस कारण किसानों ने गेंहू, चावल और दालों की खेती कम कर दी है, नौबत यहाँ तक आ पहुंची है कि हम दालों की जरूरत का बड़ा हिस्सा आयत से पूरा करते हैं।
          पर सारा दोष किसानों का नहीं है, हमारी नीतियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। हम आज भी किसानों को साहूकारों के चंगुल से मुक्त नहीं करा पाये। बैंक की बाबूगिरी में किसान इस कदर फंसता है की बेचारा आखिरकार साहूकार के दर पे आने को बाध्य हो जाता है। मैं यहाँ बड़े एवं संपन्न किसानों की बात नहीं कर रहा हूँ, वे सरकार की सारी योजनाओं का पूरा उपयोग कर पाते हैं। पर छोटे किसान जो न ही ज्यादा जागरूक होते हैं और न ही पढ़े लिखे, बेचारे बैंक के फार्म भरने में भी असमर्थ होते है। जैसे तैसे करके यदि किसान अपनी तैयार फसल को सरकारी मंडी में बेचने जाता है, तो वहां भी समस्याएं उसके स्वागत में तैयार खड़ी मिलती हैं। सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण किसानों को लाभ तो हुआ है पर मंडी तक ले जाने के बाद भी किसान को अपनी फसल तुलवाने के लिए कई दिन का इन्तजार करना पड़ता है और इस पूरे समय उसकी फसल पर कई खतरे मंडराते रहते हैं। दिन रात बेचारा अपनी फसल की चोरों से सुरक्षा करता है, और जब बरसात के कारण उसकी फसल रखी रखी भीग जाती हैं तो उसे खरीदने से मना कर दिया जाता है। इन ढांचागत परेशानियों के कारण किसान अपनी फसल बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर बेंचने को मजबूर है। पर जैसे तैसे अगर उसकी फसल सरकारी मंडी में बिक भी गयी तो उसका भुगतान होने मैं कई हफ्ते लग जाते हैं।
            यदि हम विदर्भ की समस्या को थोड़ा नजदीक से देखें तो, उसकी शुरुआत की कहानी कुछ ऐसी ही है। वहां भी किसान अनाज की जगह गन्ने और कपास जैसी नकदी फसलों की ओर बढ़े, जिनकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार तय करता है। वहां भी भू जल पर आश्रित होने के बावजूद, अधिक पानी का उपयोग होने वाली फसलों को बढ़ावा दिया गया। अधिकतर छोटा किसान वहां भी ॠण बैंक से नहीं साहूकारों से लेने को मजबूर था। यही कहानी मुझे आज हमारे किसानों की दिखती है। क्या हम भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे है ?
           

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