Friday, July 11, 2014

उलझन

कभी कभी ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ है जो मैं कहना चाहता हूँ, पर घुमड़ते हुए विचारों को सावन के बारिश में तब्दील करने की कोशिश करते करते मैं खुद ही अपने आप को खो देता हूँ । मुझे नहीं पता कि ऐसा क्या है जो मैं कहना चाहता हूँ, पर हाँ कुछ तो है जो मैं कहना चाहता हूँ । मेरे विचार उन बालों की तरह हैं, जो  कभी रेशमी मुलायम से लगते हैं, पर जब नजदीक से देखता हूँ तो उतना ही उलझा हुआ पाता हूँ । क्या कोई भाषा इंसान के हर विचार को व्यक्त कर सकती है ? या भाषाई अभिव्यक्ति की भी एक सीमा होती है ? या मैं हूँ जो भाषा के सामर्थ को काम आंक रहा हूँ ?… अपने ही विचारों में विरोधाभास पाता हूँ ।रूप नारायण जी की एक कविता है जिसकी गहराई का अंदाज़ा शायद अब मुझे होने लगा है । 
 " नीर से सीख लो - तरल होना,
   पंक से सीख लो - कमल होना,
   हाय! कितना कठिन होता है ?
   आदमी के लिए सरल होना । "
पर क्या सरलता तक पहुँचने के लिए उलझनों के बवंडर से गुजरना होता है? मुझे नहीं पता, पर रुकना भी मुझे मंजूर नहीं। कई सवाल हैं जिनके जवाब किताबों में नहीं मिलते, या जिनका जवाब मानव निरंतर खोजता रहता है, कई सवाल ऐसे भी हैं, जिनके कई जवाब हैं और हर जवाब अपने आप को उतनी ही ठोस दावेदारी के साथ पेश करता है। मेरे ज़हन में भी ऐसे कई सवाल हैं जिनका मुझे जवाब चाहिए, शायद जवाब पाकर मेरी उलझन खत्म हो। मुझे उस पल का इंतज़ार है, जब मेरे मन के सामने का कोहरा छटेगा और मैं अपने आपको आईने में साफ साफ देख सकूंगा।


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